जिस सदन में दल बदलकर बैठे हैं विधायक, वहां दल बदल के खिलाफ बोला हर कोई

जिस सदन में दल बदलकर बैठे हैं विधायक, वहां दल बदल के खिलाफ बोला हर कोई

नेता चुनाव जीतने के बाद किसी भी कीमत पर दल बदल नहीं कर पाए, ऐसा कानून बने: गहलोत

जयपुर। प्रदेश में जहां सरकार बसपा से दल बदलकर आए विधायकों के बहुमत पर है, उसी राज्य की विधानसभा में शनिवार को आयोजित हुई एक सेमीनार में दल बदल कानून को लेकर हर वक्ता के विरोध में बात रखी। दरअसल राष्ट्रमंडल संसदीय संघ राजस्थान शाखा के तत्वावधान में संविधान की दसवीं अनुसूची के अन्तर्गत अध्यक्ष की भूमिका के संबंध में शनिवार को राजस्थान विधानसभा में एक दिवसीय सेमिनार आयोजित की गई थी।

इसी सेमीनार में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कहा कि ऐसा कानून बनना चाहिए कि कोई भी नेता विधायक या सांसद बनने के बाद दल न बदल सके। कानून बने कि यदि वह दल बदलता है तो उसकी सदस्यता जाएगी। ऐसे ही विचार अन्य वक्ताओं ने भी रखे। मुख्यमंत्री ने कहा कि 35 साल पहले जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब ये 52वां सशोधन लाया गया। शुरूआत के बाद 35 साल का सफर हम देख रहे हैं। जिस रूप में ये दल-बदल का कानून बनने के बावजूद हर प्रदेश के अंदर ऐसी घटनाएं हुई हैं, किसी ना किसी रूप में बहस छिड़ जाती है।

गहलोत ने कहा कि अभी बहस ये छिड़ी कि स्पीकर के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में कैसे चुनौती मिल सकती है या वो कैसे कमेंट कर सकता है। ये डिस्कशन का विषय है। कई बार मुख्यमंत्री को शपथ दिला दी जाती है। उसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले देता है। उत्तर प्रदेश और बिहार के अंदर हुआ। शपथ हो गई मुख्यमंत्री की और दूसरे दिन इस्तीफा देना पड़ा। पार्लियामेंट को अधिकार है कि सुप्रीम कोर्ट का कोई ऐसा फैसला आए तो उसे संविधान में संशोधन करके बदल सकता है। मेरी दृष्टि के अंदर ये विषय बहुत ही नाजुक है। उन्होंने कहा कि हर किसी को राजनीतिक पार्टी से आगे आकर अध्यक्ष बनने का मौका मिलता है। उसी रूप में आपने देखा होगा… कोई व्यक्ति हो, चाहे इलेक्शन कमीशन, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट जज हो। इससे पहले वह भी कोई ना कोई पॉलिटिकल पार्टी से जुड़ा रहता है। शपथ लेने के बाद में उसकी जिम्मेदारी बनती है कि वो शपथ के आधार पर अपने विवेक से फैसला करें।

मुकम्मल व्यवस्था तक अध्यक्ष के पास हो दलबदल को लेकर निर्णय का अधिकार: हरिवंश

राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने दलबदल कानून में अध्यक्ष की भूमिका पर कहा कि दल बदल पर फैसले त्वरित हों इसलिए इसे लागू करने का काम अध्यक्ष पर छोड़ा गया। उन्होंने कहा कि इस कानून की पुन: समीक्षा कर मजबूत बनाए जाने की आवश्यकता है, लेकिन जब कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं हो जाए तब तक अध्यक्ष के पास ही इस पर निर्णय लेने का अधिकार होने चाहिये। उन्होंने कहा कि स्पीकर संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली का सबसे बेहतर प्रहरी है। इस संस्था को और मजबूत बनाने के प्रयास किये जाने चाहिये।

सेमीनार की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि हाल ही में न्यायालयों के ऐसे फैसले आए जिनके अनुसार अध्यक्ष को इस कार्य से अलग रखे जाने की बात की गई। इसलिये इस विषय पर चर्चा की जानी जरूरी है। उन्होंने कहा कि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में दल बदल हमेशा ही एक प्रमुख मुद्दा बनकर सामने आया है, जिसके चलते संविधान में संशोधन कर इस संबंध में कानून बनाया गया। उन्होंने कहा कि दलबदल कानून को लागू हुए 35 वर्ष बीत चुके हैं उसके बाद भी उसका कोई विशेष प्रभाव देखने को नहीं मिला। इन बर्षों में अनेक राज्यों में यह कानून दलबदल रोकने में विफल हो चुका है। इसलिए इसकी प्रासंगिकता पर सवाल उठना लाजमी है। इस कानून में परिवर्तन करने से पहले यह भी तय करना होगा कि यदि कोई पार्टी अपनी रीति नीति या घोषणापत्र से दूर हट रही है, जिसके आधार पर उसे जनता ने वोट दिया है, तब उस पार्टी से चुनकर आये जनप्रतिनिधि का दल बदलना सही है या नहीं।

उपसभापति ने कहा कि उनकी नजर में इसका समाधान है कि अध्यक्ष के इस बारे में निर्णय लेने की निश्चित समय सीमा तय की जानी चाहिये। इसके अलावा कानून में यह प्रावधान किये जा सकते हैं कि दल बदलने पर उनकी सदस्यता निरस्त कर नए चुनाव करवाए जाएं। उन्हें दुबारा जीतने पर भी किसी पद की जिम्मेदारी नहीं दी जाए, यदि स्पीकर चुनाव लड़े तो बड़ी पार्टियां उसके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा नहीं करें और यदि स्पीकर चुनाव नहीं लडऩा चाहे तो उन्हें राज्य सभा में भेजने की व्यवस्था की जाए।

विधानसभा अध्यक्ष एवं सीपीए राजस्थान शाखा के अध्यक्ष डॉ. सीपी जोशी ने अपने स्वागत उद्बोधन में कहा कि अध्यक्ष का कर्तव्य है कि वह सदन को नियमों के अन्तर्गत सही तरीके से संचालित करे। लेकिन अध्यक्ष की यह जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए कि वह यह देखे कि उम्मीदवार ठीक तरीके से अपनी पार्टी की रीति नीति का पालन कर रहा है या नहीं। उन्होंने कहा कि ये काम अध्यक्ष को देना लोकतंत्र को कमजोर करने जैसा है। जोशी ने कहा कि हर पार्टी के उम्मीदवार की यह जिम्मेदारी है कि वह अपने दल की नीतियों को साथ लेकर चले और ईमानदारी से उसका निर्वहन करे, क्योंकि उन नीतियों के आधार पर ही वह जीतकर सदन में आता है। यदि वह दल बदल करता है तो यह जिम्मेदारी पार्टी के अध्यक्ष की होनी चाहिये कि वह उसके विरुद्ध कार्रवाई करे। उन्होंने कहा कि चुना हुआ प्रतिनिधि यदि अपनी पार्टी को बदलता है तो यह लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। अध्यक्ष की भूमिका अद्र्धन्यायिक है तथा उच्चतम न्यायालय ने भी कहा है कि इस कानून को लागू करने में अध्यक्ष की भूमिका उचित नहीं है।

दल बदल एक बड़ी समस्या
नेता प्रतिपक्ष तथा सीपीए राजस्थान शाखा के उपाध्यक्ष गुलाबचन्द कटारिया ने कहा कि दलबदल देश की लोकतांत्रिक प्रणाली की एक बड़ी समस्या है। इस समस्या का समाधान कानून के रूप में निकाला गया, लेकिन गलियां निकालकर यह समस्या किसी न किसी रूप में सामने आती रही है। उन्होंने कहा कि कानून को मजबूत करके लोकतांत्रिक परंपरा को समृद्ध करने का काम करना चाहिये। उन्होंने कहा कि अध्यक्ष की उपस्थिति में विधानसभा सदस्यों द्वारा यदि कोई निर्णय लिया गया है तथा उसे न्यायालय में चुनौती मिले तो यह ठीक नहीं कहा जा सकता। उन्होंने कहा कि इस संबंध में भी विचार किया जाना आवश्यक है। उद्घाटन सत्र के अन्त में विधायक एवं सीपीए राजस्थान शाखा के सचिव संयम लोढा ने धन्यवाद ज्ञापित किया।

दल बदल याचिकाओं पर निर्णय की समय सीमा निर्धारित की जाए जिससे सदस्यता समाप्ति का दण्ड शीघ्र मिल सके – मिश्र

राज्यपाल कलराज मिश्र ने सेमिनार के समापन सत्र के अवसर पर अपने सम्बोधन में कहा कि दल बदल याचिकाओं पर निर्णय की समय सीमा निर्धारित की जाये जिससे सदस्यता समाप्ति का दण्ड शीघ्र मिल सके और वह विधानमण्डल की सदस्यता से अधिक समय तक वंचित रहे। राज्यपाल ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने भी इस विषय पर अपनी राय प्रकट की है कि पीठासीन अधिकारियों द्वारा दल बदल के निर्णय देने सम्बन्धी अधिकार पर संसद पुनर्विचार करें। उन्होंने कहा कि आज सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि स्पीकर जो खुद किसी पार्टी के सदस्य होते हैं, क्या उन्हें विधायकों और सासंदों की अयोग्यता पर फैसला लेना चाहिए। मिश्र ने कहा कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में एक विकल्प तो यह है कि पीठासीन अधिकारी राजनैतिक विचार धारा से ऊपर उठकर ऐसे प्रकरणों पर निष्पक्ष निर्णय दें। दल बदल याचिकाओं पर निर्णय की समय सीमा निर्धारित की जाये जिससे सदस्यता समाप्ति का दण्ड शीघ्र मिल सके और वह विधानमण्डल की सदस्यता से अधिक समय तक वंचित रहे। राज्यपाल ने कहा कि दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक विधान सभा में न्यायविदों एवं शिक्षाविदों तथा विधि विशेषज्ञों के साथ इस विषय पर व्यापक विचार विमर्श किया जाए तथा निष्कर्ष को संकल्प के रूप में पारित कर संसद में प्रस्तुत किया जाए ताकि दल-बदल अधिनियम के गैप्स को भरा जा सके।

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